
21वीं सदी के तीसरे दशक में जब भारत “विकसित भारत @2047” के सपने को साकार करने की दिशा में अग्रसर है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि हम यह मूल्यांकन करें कि हमारी लोकतांत्रिक राजनीति वास्तव में किस दिशा में काम कर रही है—क्या यह सिर्फ सत्ता की अदला-बदली तक सीमित है या समाज को समतामूलक, न्यायपूर्ण और समान अवसरों वाला बनाने की ओर बढ़ रही है? स्वतंत्रता के 75 वर्षों के बाद भी भारत में जातिवाद, धर्मांधता, लैंगिक असमानता और आर्थिक विषमता जैसे सामाजिक विकार ज्यों के त्यों मौजूद हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि भारतीय राजनीति प्रायः सत्ता परिवर्तन को ही लोकतंत्र का अंतिम लक्ष्य मान बैठी है, जबकि समाज परिवर्तन — जो किसी भी राष्ट्र के दीर्घकालिक विकास की आधारशिला है — उसे हाशिए पर धकेल दिया गया है। चुनावों में मुद्दे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, सामाजिक न्याय जैसे नहीं होते, बल्कि जातीय समीकरण, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और ब्राह्मणवादी संरचना की रक्षा प्रमुख प्राथमिकता बन जाते हैं। भारतीय राजनीति का इतिहास सत्ता की निरंतरता और विरोधाभासों से भरा हुआ है। यह इतिहास न केवल चुनावी जीत-हार के बीच झूलता रहा है, बल्कि सामाजिक परिवर्तन की मांगों, जनसंघर्षों और विचारधारात्मक द्वंद्वों का भी साक्षी रहा है। हालांकि स्वतंत्रता के पश्चात यह उम्मीद की गई थी कि राजनीति समाज को अधिक न्यायपूर्ण, समतावादी और धर्मनिरपेक्ष दिशा में ले जाएगी, परंतु यह स्वप्न कई बार सत्ता परिवर्तन की सियासी चालों में दम तोड़ता दिखा है।
आज, जब भारतीय राजनीति में दो प्रमुख पार्टियाँ — भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस — बार-बार सत्ता की अदला-बदली में लिप्त नजर आती हैं, यह सवाल अत्यंत प्रासंगिक हो जाता है: क्या यह परिवर्तन वास्तव में समाज की दशा और दिशा को बदलने वाला है, या सिर्फ सत्ता की गद्दी के लिए चल रही सियासी नौटंकी है? भारत को यदि विकसित राष्ट्रों की पंक्ति में लाना है, तो केवल सरकारें बदलने से यह संभव नहीं होगा; इसके लिए सामाजिक संरचना में गहराई से हस्तक्षेप कर उसे न्यायसंगत और समरसतामूलक बनाना अनिवार्य होगा। इस संदर्भ में यह विषय — “सत्ता परिवर्तन बनाम समाज परिवर्तन: भारतीय राजनीति की सियासी चालें” — अत्यंत प्रासंगिक है, क्योंकि यह हमें भारत की राजनीतिक दिशा और सामाजिक भविष्य के बीच के संबंधों की समीक्षा करने का अवसर देता है। विकसित भारत केवल तकनीकी या आर्थिक दृष्टि से नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता और न्याय के धरातल पर ही पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। यही इस विमर्श का केन्द्रीय उद्देश्य है। यह लेख इसी सवाल की तह में जाकर सत्ता और समाज परिवर्तन के बीच के विरोधाभास को उजागर करता है।
1. सत्ता परिवर्तन: एक आवश्यक लोकतांत्रिक प्रक्रिया या मात्र रूपांतरण?
सत्ता परिवर्तन किसी भी लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा होता है। यह प्रक्रिया शासन के उत्तरदायित्व, पारदर्शिता और जवाबदेही को सुनिश्चित करने का माध्यम हो सकती है। परंतु भारत में सत्ता परिवर्तन अक्सर केवल पार्टी के नाम और नेताओं के चेहरे बदलने तक सीमित रह गया है। नीति, दृष्टिकोण और सामाजिक संरचना वही पुरानी बनी रहती है। विशेष रूप से जब राजनीतिक दल समाज के मूलभूत ढांचों — जैसे जातिवाद, ब्राह्मणवाद, पितृसत्ता, और धार्मिक ध्रुवीकरण — को ज्यों का त्यों बनाए रखते हैं, तो सत्ता परिवर्तन का कोई सार्थक सामाजिक प्रभाव नहीं पड़ता।
2. समाज परिवर्तन: एक कठिन, धीमी लेकिन अनिवार्य प्रक्रिया
समाज परिवर्तन में समाज के मूल्यों, विश्वासों, संरचनाओं और संबंधों में बदलाव आता है। यह परिवर्तन केवल कानूनी या राजनीतिक निर्णयों से नहीं आता, बल्कि सांस्कृतिक चेतना, शिक्षा, आंदोलन और विचारधारात्मक संघर्षों से आता है। जैसे-जैसे दलित आंदोलन, महिला आंदोलन, आदिवासी सशक्तिकरण और धार्मिक सहिष्णुता की मांगें उठीं, भारतीय समाज ने कई मायनों में सुधारों की प्रक्रिया को छुआ, परंतु सत्ता में बैठे लोगों की प्राथमिकता प्रायः इन मांगों को दबाने, मोड़ने या सहानुभूति के नाम पर राजनीतिक पूंजी कमाने की रही है।
3. कांग्रेस और बीजेपी: ब्राह्मणवाद की दो संतानें?
भारतीय राजनीति में अक्सर यह आरोप लगता रहा है कि बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही ब्राह्मणवादी व्यवस्था की रक्षा और पुनर्स्थापना में लगे हुए हैं। भले ही उनके नारे और वादें अलग हों, परंतु सामाजिक न्याय, जातीय समानता और वंचित वर्गों की वास्तविक मुक्ति जैसे मुद्दों पर दोनों की चुप्पी और रणनीतिक खामोशी कई सवाल खड़े करती है।
कांग्रेस की भूमिका: स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस समाजवाद, राष्ट्रवाद और बहुलतावाद की बात करती रही। परंतु सत्ता में आने के बाद उसने सामाजिक क्रांति की बजाय सत्ता की स्थिरता और उच्च वर्गीय हितों की रक्षा को प्राथमिकता दी। मंडल आयोग की सिफारिशों के कार्यान्वयन से लेकर शूद्र, दलित और आदिवासी समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित करने में कांग्रेस की भूमिका अधिकतर प्रतीकात्मक रही।
बीजेपी की भूमिका: बीजेपी खुले तौर पर हिंदुत्व की विचारधारा को अपनाती है जो ब्राह्मणवादी संस्कृति का राजनीतिक रूप है। राम मंदिर आंदोलन से लेकर गाय-रक्षा और धर्मांतरण विरोधी कानूनों तक, पार्टी का एजेंडा सामाजिक समरसता की बजाय सांप्रदायिक ध्रुवीकरण रहा है। सामाजिक न्याय के मुद्दों को “तुष्टीकरण” और “वोट बैंक की राजनीति” के नाम पर हाशिए पर धकेला जाता है।
4. राजनीति में प्रतीकवाद बनाम यथार्थवाद
भारतीय राजनीति में समाज परिवर्तन की बातें अक्सर प्रतीकवाद तक सीमित रह जाती हैं। जैसे किसी दलित को राष्ट्रपति बना देना या ओबीसी नेता को मुख्यमंत्री बना देना, परंतु उनके अधिकार क्षेत्र, निर्णयों की शक्ति, और नीति निर्माण में भूमिका सीमित रहती है। ये सब जनभावनाओं को सहलाने और राजनीतिक लाभ उठाने की चालें हैं, न कि समाज परिवर्तन की गंभीर कोशिशें।
5. सामाजिक आंदोलन और सियासी दलों की असहजता
जब भी दलित, महिला, आदिवासी या किसान आंदोलन जोर पकड़ते हैं, तब सत्ताधारी दलों की प्राथमिकता इन आंदोलनों को कुचलने, भटकाने या सहानुभूति की आड़ में हजम करने की हो जाती है। यह व्यवहार सत्ता परिवर्तन की भूखी राजनीति और समाज परिवर्तन से दूरी को उजागर करता है।
भीमा-कोरेगांव आंदोलन
शाहीन बाग आंदोलन
किसान आंदोलन (2020–21)
इन आंदोलनों से स्पष्ट है कि जब भी लोग समाज को लेकर आवाज़ उठाते हैं, सियासत उन्हें राजनीतिक खतरे की तरह देखती है।
6. मीडिया, पूंजी और सत्ता का गठजोड़
राजनीति, कॉर्पोरेट पूंजी और मीडिया के बीच बना मजबूत गठजोड़ समाज परिवर्तन की हर मांग को या तो “राष्ट्रविरोध” घोषित करता है या “विकास विरोधी”। इस मीडिया विमर्श का नियंत्रण उन्हीं शक्तियों के पास है जिनका हित ब्राह्मणवादी सामाजिक संरचना के टिके रहने में है।
7. वोट बैंक की राजनीति और समाजिक न्याय का अपहरण
राजनीतिक दलों ने सामाजिक न्याय को एक वोट बैंक में तब्दील कर दिया है। हर चुनाव से पहले आरक्षण, धर्म, जाति, और अल्पसंख्यकों के नाम पर घोषणाएँ होती हैं, जो चुनाव के बाद खोखली साबित होती हैं। यह समाज परिवर्तन नहीं बल्कि सत्ता परिवर्तन की गणित है।
8. नई राजनीतिक ताकतें: उम्मीद या भ्रम?
हाल के वर्षों में आम आदमी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, और भारत राष्ट्र समिति जैसे दलों ने खुद को समाज परिवर्तन की राजनीति के पक्षधर के रूप में प्रस्तुत किया है, परंतु सत्ता में आते ही इन दलों की प्राथमिकता भी पारंपरिक सत्ता संरचना को बनाए रखने की हो जाती है। इससे यह प्रश्न उठता है कि क्या कोई दल वास्तव में समाज परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध है?
9. संविधान, बाबा साहेब और राजनीति का मौन
डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संविधान को सामाजिक क्रांति का माध्यम माना था। उन्होंने चेतावनी दी थी कि यदि राजनैतिक समानता के साथ सामाजिक और आर्थिक असमानता बनी रही, तो यह लोकतंत्र एक छलावा बन जाएगा। दुर्भाग्यवश, आज का भारतीय राजनीति तंत्र संविधान की मूल भावना को अनदेखा कर सत्ता की भूख में सामाजिक मुद्दों को कुचलता जा रहा है।
10. समाधान की दिशा: जनजागरण और वैचारिक राजनीति की पुनर्रचना
शिक्षा और चेतना:
समाज परिवर्तन की पहली शर्त है — जन चेतना की क्रांति। शिक्षा, विमर्श और वैकल्पिक मीडिया के माध्यम से लोगों को सत्ताधारी संरचनाओं की चालों से अवगत कराना आवश्यक है।
विचारधारा आधारित राजनीति:
जातिविहीन, धर्मनिरपेक्ष, और समतामूलक राजनीति को पुनर्स्थापित करना होगा। केवल चेहरों को बदलना काफी नहीं, हमें विचार और व्यवस्था को बदलना होगा।
आंदोलन और भागीदारी:
हर नागरिक को एक सामाजिक कार्यकर्ता बनकर बदलाव का हिस्सा बनना होगा। आंदोलन को अस्थायी विरोध के बजाय एक सतत वैचारिक प्रक्रिया के रूप में अपनाना होगा।
विकसित भारत का सपना केवल आर्थिक वृद्धि, बुनियादी ढांचे के विस्तार या वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भागीदारी से नहीं साकार हो सकता, जब तक कि समाज का हर वर्ग समान अवसर, सम्मान और न्याय का भागीदार न बने। इसके लिए आवश्यक है कि राजनीति सत्ता के खेल से ऊपर उठकर समाज परिवर्तन की दिशा में प्रतिबद्ध हो। आज भारतीय राजनीति में सत्ता परिवर्तन तो होता है, लेकिन उसकी प्रकृति और दिशा अक्सर सामाजिक न्याय, समता, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे मूल प्रश्नों से भटक जाती है। चुनाव दर चुनाव केवल चेहरे बदलते हैं, नीतियों की आत्मा नहीं। समाज परिवर्तन की अपेक्षा तब तक अधूरी रहेगी जब तक राजनीति ब्राह्मणवादी वर्चस्व, जातीय असमानता, वर्गीय शोषण और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के विरुद्ध स्पष्ट रुख न अपनाए। विकसित भारत का निर्माण तभी संभव है जब राजनीति केवल वोट की गणना नहीं, बल्कि समाज की पीड़ा का समाधान बनकर उभरे। यह तब होगा जब जनसंपर्क की जगह जनसंवाद होगा, और नीतिगत प्राथमिकताओं में सत्ता नहीं, बल्कि समाज के अंतिम व्यक्ति का कल्याण प्रमुख होगा। यही राजनीति की असली सफलता और विकसित भारत की आधारशिला होगी।
भारतीय राजनीति का वर्तमान परिदृश्य इस सच्चाई को स्पष्ट करता है कि सत्ता परिवर्तन ने समाज परिवर्तन की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की है। दलित, आदिवासी, पिछड़े, महिलाएं और अल्पसंख्यक आज भी उसी सामाजिक अन्याय, उपेक्षा और शोषण का शिकार हैं। राजनीतिक दलों की चालें अक्सर सत्ता प्राप्ति की साजिशों से भरी होती हैं, जिनमें समाज परिवर्तन सिर्फ एक चुनावी नारों तक सीमित होता है। यदि भारतीय लोकतंत्र को उसकी आत्मा — समाजिक न्याय, समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व — के अनुरूप जीवित रखना है, तो सत्ता परिवर्तन से आगे बढ़कर समाज परिवर्तन की सशक्त प्रक्रिया को अपनाना होगा। यही भारत को वास्तव में विकसित, समतामूलक और मानवीय राष्ट्र बना सकेगा और विकसित भारत के रूप में महाशक्ति बनकर विश्व के समाने एक सशक्त, अखंड, श्रेष्ठ, समृद्ध व विकसित राष्ट्र के रूप में स्थापित होगा। जय हिन्द जय भारत।।
डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा