लेख

“विकसित भारत की राह में जाति, दहेज और नशा: सामाजिक प्रगति के बाधक तत्व एवम विकसित भारत की चुनौती: जाति व्यवस्था, दहेज लोभ और नशा व्यसन से मुक्ति”

डॉ प्रमोद कुमार

भारत एक ऐसा राष्ट्र है जिसकी सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विरासत विश्व में अद्वितीय रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश ने प्रगति की अनेक दिशाओं में कदम बढ़ाए हैं, लेकिन आज भी कुछ सामाजिक कुरीतियाँ भारत निर्माण की राह में गंभीर अवरोध बनी हुई हैं। जातिवाद, दहेज प्रथा और नशाखोरी ऐसी ही समस्याएँ हैं जो देश की आत्मा को भीतर से कमजोर करती हैं। जाति के नाम पर भेदभाव, विवाह को व्यापार बना देने वाली दहेज-प्रथा, और नशे में डूबती युवा पीढ़ी – ये केवल व्यक्तिगत मुद्दे नहीं, बल्कि राष्ट्रीय विकास के मार्ग की बाधाएँ हैं। यह स्थिति चिंता का विषय अवश्य है, लेकिन साथ ही एक आत्ममंथन का अवसर भी है। क्या हम अपने भीतर झाँक कर इन बुराइयों के विरुद्ध सामाजिक क्रांति का आरंभ कर सकते हैं? आज आवश्यकता है इन समस्याओं की गहराई से समीक्षा करने की, ताकि हम अपने सामाजिक ढांचे को सशक्त, समानतामूलक और नैतिक आधारों पर पुनर्निर्मित कर सकें। यह लेख इसी विमर्श की एक पहल है – जहां हम इन अवरोधों को अवसर में बदलने की संभावनाएँ तलाशेंगे और विकसित भारत की दिशा में आगे बढ़ने का संकल्प लेंगे।
भारत जैसे प्राचीन सभ्यता और सांस्कृतिक विविधता से परिपूर्ण राष्ट्र ने आधुनिकता और विज्ञान के क्षेत्र में कई ऊँचाइयों को छुआ है। तकनीकी उन्नति, आर्थिक विकास, वैश्विक मंच पर पहचान – इन सबने भारत को एक “विकसित राष्ट्र” की दिशा में अग्रसर किया है। किंतु सामाजिक यथार्थ की तस्वीर इतनी सरल नहीं है। जब एक ओर भारत ‘डिजिटल इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्टार्टअप इंडिया’ जैसे अभियानों के साथ भविष्य को आलोकित कर रहा है, वहीं दूसरी ओर समाज की जड़ में गहरे बैठे जातिवाद, दहेज प्रथा और नशाखोरी जैसी कुरीतियाँ देश की प्रगति में गंभीर अवरोध उत्पन्न कर रही हैं। ये तीनों समस्याएँ – जाति, दहेज और नशा – केवल व्यक्तिगत या पारिवारिक स्तर तक सीमित नहीं, बल्कि राष्ट्रीय संरचना, सामाजिक समरसता, आर्थिक विकास, लैंगिक न्याय और युवा सशक्तिकरण जैसी मूलभूत धारणाओं को बाधित करती हैं। इस लेख में हम इन तीनों सामाजिक विकृतियों का विस्तार से विश्लेषण करेंगे और यह जानने का प्रयास करेंगे कि ये किस प्रकार “विकसित भारत” के मार्ग में प्रमुख रोड़े बन चुके हैं।
1. जातिवाद: सामाजिक बंटवारे की जड़
1.1 जाति व्यवस्था की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारत की सामाजिक संरचना में जाति प्रणाली की जड़ें प्राचीन काल तक फैली हुई हैं। प्रारंभ में वर्ण व्यवस्था कार्य पर आधारित थी, किंतु कालांतर में यह जन्म आधारित और कठोर सामाजिक वर्गीकरण में परिवर्तित हो गई।
जातिवाद का यह रूप समाज में ऊँच-नीच, भेदभाव और बहिष्करण का कारण बना। यह केवल सामाजिक अन्याय नहीं, बल्कि सृजनात्मकता और संभावनाओं का गला घोंटने वाली व्यवस्था बन गई।
1.2 जातिवाद का समकालीन स्वरूप
आधुनिक भारत में संवैधानिक रूप से जातिवाद को गैरकानूनी माना गया है, परन्तु व्यवहारिक स्तर पर यह अब भी मौजूद है: शैक्षिक संस्थानों में जातिगत भेदभाव, रोजगार में जाति आधारित आरक्षण को लेकर वैमनस्य, विवाह में जाति-आधारित विरोध और ऑनर किलिंग, राजनीति में जातिगत ध्रुवीकरण और वोट बैंक की राजनीति, जाति केवल सामाजिक बंटवारे की प्रतीक नहीं, बल्कि विकास के संसाधनों के असमान वितरण का कारण भी बनती है। यह उन प्रतिभाओं को पीछे धकेल देती है जो केवल “जाति” की पहचान के कारण अवसरों से वंचित रह जाती हैं।
2. दहेज प्रथा: विवाह का व्यापारिकरण
2.1 दहेज की सामाजिक उत्पत्ति और विकास
दहेज की परंपरा आरंभ में स्त्री को संपत्ति देने की एक सकारात्मक भावना से जुड़ी थी। किंतु धीरे-धीरे यह एक शोषणकारी सामाजिक कर बन गई। विवाह जैसे पवित्र बंधन को वित्तीय सौदेबाजी का केंद्र बना दिया गया। दहेज अब एक ‘प्रथा’ नहीं, एक ‘आवश्यकता’ के रूप में देखा जाने लगा।
2.2 आधुनिक भारत में दहेज की स्थिति
आज भी दहेज के कारण:
हज़ारों कन्याएँ जन्म से पहले मार दी जाती हैं (भ्रूण हत्या)।
विवाह उपरांत शारीरिक, मानसिक और आर्थिक प्रताड़नाएँ दी जाती हैं।
कई युवतियाँ आत्महत्या के लिए मजबूर होती हैं या दहेज हत्या का शिकार बनती हैं।
स्त्रियों को ‘बोझ’ समझा जाता है। इस मानसिकता ने भारतीय समाज को लैंगिक असमानता, अशिक्षा और महिला सशक्तिकरण की विफलता की ओर धकेला है।
3. नशाखोरी: युवा शक्ति का आत्मविनाश
3.1 नशे की सामाजिक पृष्ठभूमि

नशाखोरी कोई आधुनिक समस्या नहीं, लेकिन आज इसकी व्याप्ति और तीव्रता भयावह रूप ले चुकी है। विशेषकर युवाओं में शराब, गांजा, अफीम, सिंथेटिक ड्रग्स, स्मैक, हेरोइन, कोकिन आदि का चलन बढ़ता जा रहा है। यह केवल व्यक्तिगत बर्बादी नहीं, राष्ट्रीय उत्पादकता और सामाजिक संरचना का क्षरण है।
3.2 नशे का समाज और राष्ट्र पर प्रभाव
स्वास्थ्य और मनोविज्ञान पर गहरा प्रभाव: अवसाद, आत्महत्या, हिंसक प्रवृत्ति।
आर्थिक नुकसान: उत्पादकता में कमी, चिकित्सा व्यय में वृद्धि।
परिवार विघटन: घरेलू हिंसा, अलगाव, बाल शोषण।
अपराध दर में वृद्धि: चोरी, बलात्कार, हत्या जैसे अपराधों में बढ़ोत्तरी।
4. जाति, दहेज और नशा: एक अंतर्संबंधित त्रिकोण
ये तीनों समस्याएँ एक-दूसरे से स्वतंत्र नहीं हैं, बल्कि आपस में गहराई से जुड़ी हुई हैं। उदाहरण के लिए:
जातिगत संकीर्णता के चलते अंतर्जातीय विवाह को रोका जाता है और प्रेम विवाहों में हिंसा होती है।
दहेज के नाम पर लड़कियों को मार डाला जाता है, विशेषकर यदि वह “निचली जाति” की हो।
नशाखोरी के कारण कई बार परिवारों में तनाव और महिलाओं पर अत्याचार बढ़ जाते हैं।
यह त्रिकोण समाज को भीतर से खोखला कर रहा है।
5. ‘विकसित भारत’ के दृष्टिकोण से इन समस्याओं की समीक्षा
5.1 आर्थिक दृष्टिकोण
जातिवाद और दहेज प्रतिभा का शोषण कर विकास की गति को धीमा करते हैं।
नशे के कारण लाखों युवा शक्ति व्यर्थ हो रही है – जो कि राष्ट्र की जनसांख्यिकी पूंजी है।
5.2 सामाजिक समरसता
इन समस्याओं के रहते एक समरस, समतामूलक और सशक्त समाज की कल्पना अधूरी है। ये विभाजन, हिंसा, असमानता और घृणा को जन्म देती हैं।
5.3 वैश्विक छवि
भारत यदि वैश्विक शक्ति बनना चाहता है, तो उसे इन अंतःविरोधों से उबरना होगा। अन्यथा यह सामाजिक कुरीतियाँ देश की सॉफ्ट पावर को कमजोर करेंगी।
6. समाधान के उपाय और नीति-स्तरीय हस्तक्षेप
6.1 जातिवाद के उन्मूलन हेतु
समान शिक्षा का प्रसार
अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहन
राजनीति में जातिगत ध्रुवीकरण पर रोक
सामाजिक संगठनों द्वारा सामूहिक विमर्श और संवाद
6.2 दहेज प्रथा के विरुद्ध
दहेज निषेध अधिनियम का प्रभावी क्रियान्वयन
‘नो दहेज’ विवाहों को सम्मान और सरकारी सहायता
स्त्री शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता को बढ़ावा
6.3 नशाखोरी पर नियंत्रण
नशा मुक्ति केंद्रों की संख्या और गुणवत्ता में वृद्धि
युवाओं में खेल, कला और रचनात्मकता को प्रोत्साहन
सार्वजनिक जागरूकता अभियानों द्वारा मानसिक परिवर्तन
नशीले पदार्थों की बिक्री और तस्करी पर कठोर नियंत्रण
7. सामाजिक चेतना और जनभागीदारी की आवश्यकता
केवल सरकार या कानून के बल पर इन सामाजिक कुरीतियों से मुक्ति संभव नहीं। इसके लिए सामाजिक पुनर्जागरण और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण आवश्यक है:
माता-पिता, शिक्षक, धार्मिक नेता और सामाजिक कार्यकर्ता मिलकर नई पीढ़ी को मानवीय मूल्यों की ओर प्रेरित करें।
शिक्षण संस्थानों में सामाजिक न्याय, समानता, विवेकशीलता और नैतिकता पर आधारित पाठ्यक्रम को शामिल किया जाए।
मीडिया और सिनेमा को समाज के रचनात्मक परिवर्तन में सहभागी बनना होगा।
8. निष्कर्ष: भारत का भविष्य – समरस, समतामूलक और नशामुक्त
एक विकसित भारत केवल GDP, तकनीक या रक्षा शक्ति से नहीं बनता, बल्कि उससे बनता है जो अपनी मानवता, न्याय और समानता को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है।
जातिवाद, दहेज और नशाखोरी जैसे सामाजिक दोष हमारी आत्मा पर कलंक हैं, जो हमें अपने ही नागरिकों से काटते हैं, उनका शोषण करते हैं और देश की ताकत को क्षीण करते हैं। भारत निर्माण की राह में जातिवाद, दहेज प्रथा और नशा जैसी सामाजिक कुरीतियाँ एक गहरी चुनौती प्रस्तुत करती हैं। ये समस्याएँ न केवल सामाजिक समरसता को बाधित करती हैं, बल्कि राष्ट्र के नैतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विकास की गति को भी अवरुद्ध करती हैं। जाति के आधार पर विभाजन, विवाह को लेन-देन में परिवर्तित करने वाली दहेज-प्रथा, और नशे की लत में डूबा युवा वर्ग — ये तीनों ही भारत की आत्मा को आघात पहुँचाते हैं। किन्तु इन अवरोधों को केवल शोक का कारण मानना पर्याप्त नहीं। यह समय आत्ममंथन का है — जब हमें इन बुराइयों के मूल कारणों को समझकर उन्हें जड़ से समाप्त करने की दिशा में ठोस प्रयास करने चाहिए। शिक्षा, सामाजिक चेतना, नीति-निर्माण और व्यक्तिगत उत्तरदायित्व के माध्यम से हम एक समरस, न्यायपूर्ण और3 स्वच्छ भारत की नींव रख सकते हैं।
भारत निर्माण केवल इमारतों और तकनीकी प्रगति से नहीं होगा, बल्कि एक ऐसे समाज से होगा जो समानता, करुणा और विवेक पर आधारित हो। अतः यह समय है कि हम इन अवरोधों को आत्मचिंतन और सामाजिक नवजागरण का अवसर बनाएं — ताकि “विकसित भारत” केवल एक सपना न रह जाए, बल्कि एक सजीव और सशक्त वास्तविकता बन सके। यदि भारत को 2047 तक एक विकसित, सशक्त और समावेशी राष्ट्र बनाना है, तो इन कुरीतियों को समूल नष्ट करना ही होगा।।वह भारत ही सच्चा “विकसित भारत” कहलाएगा जहाँ हर नागरिक को समान अवसर, सम्मान और गरिमा प्राप्त हो – न कि उसकी जाति, दहेज की हैसियत या नशे की गिरफ्त से उसकी पहचान तय हो।

डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा

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