राजनीतिकलेख

संघ प्रमुख मोहन भागवत की दृष्टि में भारत का भविष्य और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

राकेश कुमार मिश्र

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है जो आने वाली विजयादशमी को अपनी स्थापना के 100 वर्ष पूर्ण कर रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा विज्ञान भवन, दिल्ली में 26अगस्त से 28अगस्त तक व्याख्यान माला एवं जिज्ञासा समाधान कार्यक्रम का आयोजन किया गया जिसका नेतृत्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख एवं सर संघचालक श्री मोहन भागवत जी ने किया। कार्यक्रम के प्रथम दो दिवसों में संघ प्रमुख मोहन भागवत जी ने अपना भाषण देकर आगन्तुकों को सम्बोधित किया एवं तीसरे दिन जिज्ञासा समाधान सत्र में मीडिया एवं जिज्ञासु लोगों के सवालों का जवाब दिया। संघ प्रमुख ने पहले दिन के संबोधन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 वर्षों के सफर और इस दौरान आने वाली चुनौतियों की चर्चा की। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के उद्देश्य एवं हिन्दुत्व की अवधारणा पर भी प्रकाश डाला जबकि दूसरे दिकछन के संबोधन में भारत के भविष्य और इसमें संघ के स्वयंसेवकों की भूमिका की चर्चा नए क्षैतिज के अन्तर्गत की।
संघ प्रमुख मोहन भागवत जी ने पहले दिन के संबोधन में बताया कि प्रत्येक राष्ट्र का एक मिशन होता है जिसकी पूर्ति वह विश्व के लिए करता है और भारत का भी एक मिशन रहा है कि वह विश्व को ज्ञान एवं जीवन पद्धति का एक प्रतिमान दे जो समस्त विश्व के लिए कल्याणकारी हो। भारत सदियों से ऐसा करता आ रहा है और भविष्य में भी वह नए क्षैतिज के अन्तर्गत विश्व गुरु की भूमिका निभाने के लिए तत्पर एवं प्रयासरत रहेगा और ऐसा प्रतिमान विश्व के समक्ष रखेगा जो समस्त विश्व के लिए कल्याणकारी हो। भारत की ऐतिहासिक यात्रा की याद दिलाते हुए संघ प्रमुख ने कहा कि भारत एक समय शिखर पर था। विश्व में भारत के ज्ञान और समृद्धि का डंका बजता था। इसके बाद एक लम्बे समय तक गुलामी का दौर आया। आज हम स्वतंत्र हैं और पुनः उत्थान एवं प्रगति के पथ पर अग्रसर हैं। गुलामी के दौर में अनेक आंदोलन एवं समाज में सुधार के प्रयत्न किए गए जिनके नतीजे भी सामने आए और देश स्वतंत्र हुआ। इनमें 1857की क्रांति एवं विद्रोह, गांधी जी के नेतृत्व में स्वतंत्रता के लिए राजनीतिक जागरूकता का अभियान, स्वामी विवेकानन्द एवं स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे महापुरूषों के द्वारा देश के लोगों से अपने मूल एवं जड़ो की तरफ लौटने की गुहार और अस्पृश्यता निवारण जैसे समाज सुधार आन्दोलन शामिल थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार ने अधिकांश में बढ़ चढ़कर भाग लिया। इस सबके
बावजूद वे इस बात से चिन्तित रहते थे कि समाज में अपेक्षित सुधार नहीं आए और अनेक विकृतियाँ विद्यमान थीं।
डा हेडगेवार ने व्यक्ति चरित्र निर्माण के द्वारा समाज के उत्थान के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना का उद्देश्य व्यक्ति के चरित्र का उत्थान कर उसमें समाज सेवा, देशभक्ति एवं सहिष्णुता जैसे गुणों का विकास कर सम्पूर्ण हिन्दू समाज को संगठित करना था। संघ हिन्दू शब्द का प्रयोग एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में करता है जहां हिन्दू धर्म एक पूजा पद्धति नहीं है वरन एक जीवन पद्धति है। यह जीवन पद्धति हजारों वर्ष पूर्व ऋषियों एवं साधु सन्तों के द्वारा प्रतिपादित एवं विकसित की गई है। इस सनातन जीवन पद्धति का अनुसरण करने वाले सर्वधर्म समभाव, समस्त मानवता के कल्याण और विश्व बन्धुत्व के मूल्यों पर यकीन रखते हैं।यह सनातन हिन्दू विचारधारा इस बात पर विश्वास करती है कि विविधता व्यक्ति या समाज का अपरिहार्य तत्व है और वह समाज की एकता में कोई बाधा नहीं है क्योंकि सभी पंथ या रास्ते अन्ततः एक ही लक्ष्य ईश्वर तक ले जाते हैं। संघ प्रमुख ने कहा कि सभी अपने विश्वास एवं स्वत्व पर चलते हुए भी देश के पुनर्निर्माण हेतु कार्य कर सकते हैं और आगे बढ़ सकते हैं। ऐसे में संयम रखकर हम सभी संघर्ष के बजाय समन्वय के मार्ग पर बढ़कर मातृभूमि की सेवा कर सकते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में स्वयंसेवकों की भूमिका पर संघ प्रमुख ने कहा कि स्वयंसेवक ही संघ को चलाते हैं और वे संगठन एवं समाज के प्रति पूर्ण समर्पण भाव से कार्य करते हैं। संघ स्वयंसेवकों के आचरण एवं व्यवहार पर नजर अवश्य रखता है परन्तु उन पर कोई नियंत्रण नहीं लगाता। संघ पूर्णतः एक स्वयंसेवी संगठन है और स्वयंसेवकों के ही सहयोग एवं गुरुदक्षिणा से प्राप्त धन से ही आज अपने इस विशाल स्वरूप तक पहुंचा है। संघ प्रमुख ने बताया कि हम जिस हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना पर चलते हैं और भारत को हिन्दू राष्ट्र मानते हैं, वह देश या नेशन से भिन्न है और राज्य या शासन से दूर विशुद्ध रूप से सांस्कृतिक है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यह 100 वर्षों का सफर काफी उपेक्षा एवं कठोरतम विरोध के पड़ावों को स्वयंसेवकों के संगठन के लिए पूर्ण समर्पण के बल पर पूरा किया है। आजकी स्थितियां बहुत अनुकूल हैं और हमारी मान्यता बढ़ी है। हम पर विश्वास भी बढ़ा है, इसका एक उदाहरण है कि जयप्रकाश जी जो 1948 में मशाल लेकर संघ कार्यालय फूंकने आए थे उन्होंने ही आपातकाल के बाद यह कहा कि परिवर्तन लाने की उम्मीद आप ही से है। इसका कारण संघ के संस्कार हैं जो सभी को अपना मानकर चलने की बात करते हैं।
संघ में घृणा एवं नफरत के लिए कोई स्थान नहीं है। हमारा मानना है कि जो सज्जनता का व्यवहार करे, उससे सज्जनता का व्यवहार करो। जो आपसे सज्जनता का व्यवहार नहीं करता, उसकी उपेक्षा करो। जो कोई भी अच्छा करे उसकी सराहना करो और मुदित हो और जो दुर्जन हों, उन पर भी करूणा करो, घृणा नहीं।
संघ प्रमुख मोहन भागवत ने दूसरे दिन के संबोधन में भविष्य के भारत की तस्वीर सामने रखते हुए संघ के स्वयंसेवकों की भूमिका पर प्रकाश डाला। उन्होंने धार्मिकता से भरपूर भारत बनाने पर जोर दिया जो विश्व को एक प्रतिमान दे सके। उन्होंने पुनः स्पष्ट किया कि धार्मिक मूल्यों से ओतप्रोत भारत ही विश्व को सहिष्णुता, विश्व बन्धुत्व एवं मानवीयता के साथ साथ सर्वधर्म समभाव के पथ पर चलने की दिशा दिखा सकता है जिससे विश्व शान्ति एवं सबके कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा। संघ प्रमुख ने बताया कि विगत दो शताब्दी में विश्व में जड़वाद एवं व्यक्तिवाद तेजी से बढ़ा है जो सभी आज की समस्याओं का मूल कारण है। बढ़ती हुई उपभोगवादी संस्कृति ने विवाद एवं टकराव को बढ़ावा दिया है हमें इसे नियंत्रित करने के लिए संयमित जीवन अपनाना होगा। विश्व ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद लीग आफ नेशन्स बनाया और दूसरे विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की परन्तु विश्व में संघर्ष एवं टकराव आज भी जारी है जिसका समाधान अति जड़वाद एवं उपभोगवाद पर अंकुश लगाना ही है। आज सम्पूर्ण विश्व महात्मा गांधी के द्वारा बताए गए सात पापों से ग्रसित है। यह सात पाप हैं- कार्य के बिना धन, गुण दोष से अज्ञात आनंद, त्याग के बिना धर्म, चरित्र रहित ज्ञान, मानवीयता से रहित विज्ञान, नैतिकता से विहीन वाणिज्य और सिद्धांत विहीन राजनीति। आज की सबसे बड़ी जरूरत समाज में सकारात्मकता एवं सदभावना लाने के लिए समाज में दूरियों को पाटने का प्रयास करना और विविधताओं के बावजूद समन्वय से एक ही दिशा में आगे बढ़ना है।
अर्थनीति पर चर्चा करते हुए संघ प्रमुख ने कहा कि भारत आज आर्थिक तौर पर मजबूत है। हमें भविष्य के लिए नीतियाँ बनाते समय यह ध्यान रखना होगा कि हमारी नीतियाँ विकेन्द्रीकरण को बढ़ावा देने वाली हों और रोजगार उन्मुख हों। हमें कम ऊर्जा खपत वाली नीतियाँ बनानी चाहिए जो पर्यावरण के लिए अनुकूल हों। हमें पर्याप्त उत्पादन करना होगा जिसमें अधिकतम लोगों की भागीदारी हो और हमारा आर्थिक विकास मानवीय मूल्यों के साथ हो। ऐसे प्रतिमान बनाकर ही हम विश्व में अपनी स्वीकार्यता बढ़ा सकते हैं और विश्व को आकर्षित कर सकते हैं। हमें विश्व के सभी देशों तक पहुंचना होगा परन्तु हम शुरूआत अपने निकट के देशों से कर सकते हैं जो कभी अपने ही थे। संघ प्रमुख ने कहा कि एक सुसंगठित एवं गुण सम्पन्न समाज ही ऐसे बदलाव ला सकता है जो राष्ट्र की उन्नति में सहायक होने के साथ साथ सभी के लिए हितकारी हों। हम इन्हें पंच परिवर्तन कहते हैं समाज को धीरे धीरे बदलाव लाकर इस दिशा में बढ़ना होगा एवं अपने आचरण में सुधार लाना होगा।
संघ प्रमुख के अनुसार पंच परिवर्तनों में पहला है कुटुम्ब प्रबोधन। इससे व्यक्तिवाद पर नियंत्रण लगेगा एवं सम्बन्ध हीनता समाप्त होगी। सम्बन्ध हीनता आज पूरे विश्व की बड़ी समस्या है। इससे संस्कारों को बढ़ावा मिलेगा। परिवार में सभी के साथ उठना बैठना, भोजन एवं गपशप से इसे बल मिलेगा हमें अपनी परंपरा एवं संस्कृति की चर्चा सभी के साथ करनी होगी जिससे उनकी जानकारी सभी तक पहुंचे। हमें परिवार के साथ घूमने का प्रोग्राम बनाते समय कभी झुग्गी झोपड़ी वाली बस्तियों या कारगिल पहाड़ियां पर भी जाना चाहिए जिससे वहाँ के लोगों के विषय में भी हम जान सकें।
पंच परिवर्तनों में दूसरा है पर्यावरण जिसकी बातें बहुत होती हैं।सरकार इस दिशा में जो कर सकती है वह करेगी, परन्तु हमारा भी इसमें अपने स्तर पर सहयोग वांछनीय होगा। हम निजी स्तर पर छोटे छोटे काम तो कर ही सकते हैं जैसे पानी का बचाव, पालीथिन का उपयोग बंद और वृक्ष, पेड़पौधे लगाकर हरियाली का विस्तार। तीसरा तत्व है सामाजिक समरसता में वृद्धि। सत्य है कि सामाजिक विषमताएं बढ़ रही हैं और व्यक्ति ही इसके लिए उत्तरदायी है। हम किसी के सामने आते ही उसे मनुष्य के रूप में देखने के स्थान पर जाति, मजहब, अमीर -गरीब या उसके ओहदे के आधार पर देखते हैं जो इससे ही विषमता बढ़ती है। हमें ऊँच नीच एवं वर्गभेद को समाप्त करने की दिशा में सोचना एवं कार्य करना होगा जिससे मानवीयता को बढ़ावा मिले।
पंच परिवर्तन के चतुर्थ आयाम में हमें आत्मनिर्भरता पर बल देना होगा और इसके लिए स्वदेशी को बढ़ावा देना होगा। जो हम देश में बना सकते हैं,उसके आयात को रोकना होगा। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार आज के समय में अपरिहार्य है क्योंकि सभी देश परस्पर एक दूसरे पर निर्भर हैं। इससे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार किसी दबाव में नहीं बल्कि हमारे चुनाव पर होगा। यही बात देश में भी लागू होती है कि हम स्थानीय बाजार के उत्पादन को खरीदने पर ध्यान दें। इससे अपने गाँव क्षेत्र के लोगों को रोजगार मिलेगा। हमें अपनी विशेषताओं को महत्व देना चाहिए और भाषा, वेशभूषा, भजन, भवन में अपनी परंपराओं को महत्व देना चाहिए। विदेशी नकल में अपनी भाषा, वेशभूषा एवं खान -पान को छोड़ना उचित नहीं होगा।
अन्त में पांचवां परिवर्तन हमें यह लाना होगा कि हम संविधान तथा नियमों एवं कानून का पालन करें। किसी भी परिस्थिति में उकसावे में नहीं आवें और किसी से अपमानित होने या भावनाओं को ठेस लगने पर भी स्वयं प्रतिक्रिया देने के स्थान पर कानून की शरण लें। हमारे आवेश में आकर प्रतिक्रिया देने का फायदा अराजक तत्वों को मिलता है।हमें इससे बचना होगा। अन्त में संघ प्रमुख ने कहा कि हमारा लक्ष्य सम्पूर्ण समाज को संघमय करना होगा जिसके लिए संघ के स्वयंसेवकों को नए क्षैतिज में गांव गांव और हर घर पहुंच कर समग्र समाज को इन परिवर्तनों की दिशा में आगे बढ़ने के लिए तैयार करना होगा

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