लेख

“चुनावी जिम्मेदारियाँ बनाम शिक्षक विहीन कक्षाएँ: गरीब, किसान व मजदूर परिवारों के बच्चों का डगमगाता भविष्य”

डॉ प्रमोद कुमार

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में चुनाव अपने आप में एक विशाल और जटिल प्रक्रिया है, जिसके संचालन के लिए अत्यधिक मानव संसाधन की आवश्यकता पड़ती है। इस आवश्यकता की पूर्ति प्रायः शिक्षा विभाग के माध्यम से की जाती है, जिसमें सबसे अधिक दायित्व शिक्षक समुदाय पर डाला जाता है। शिक्षकों को विभिन्न प्रकार की चुनावी ड्यूटी, प्रशिक्षण, बूथ-प्रबंधन, मतदान और मतगणना कार्यों में लगाया जाता है। यह व्यवस्था प्रशासनिक दृष्टि से भले सुचारू लगे, परंतु इसका दुष्परिणाम उस सामाजिक वर्ग पर अत्यधिक गहराई और निर्ममता के साथ पड़ता है, जो अपने बच्चों का भविष्य केवल स्कूल की शिक्षा पर निर्भर रखता है—अर्थात किसान, मज़दूर और गरीब परिवार। जब शिक्षक लगातार चुनावी जिम्मेदारियों में उलझे रहते हैं, तब विद्यालयों में कक्षाएँ शिक्षक-विहीन हो जाती हैं और बच्चों की शिक्षा सबसे अधिक प्रभावित होती है। यह संकट केवल शिक्षा का नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ी के सपनों, अवसरों और अधिकारों का संकट है, जो सामाजिक न्याय, समानता और विकास के राष्ट्रीय लक्ष्य को असंतुलित और अधूरा बना देता है।

ग्रामीण भारत में शिक्षा आज भी केवल पाठ्यक्रम का विषय नहीं है, बल्कि यह सामाजिक उन्नति का एकमात्र साधन है। किसान और मज़दूर परिवारों के पास अपने बच्चों को ऊँचे स्तर की कोचिंग, संसाधन और निजी विद्यालयों की सुविधा उपलब्ध कराने की आर्थिक क्षमता अक्सर नहीं होती। उनके बच्चे सरकारी विद्यालयों पर ही निर्भर रहते हैं और वहीं से अपना भविष्य गढ़ते हैं। ऐसी परिस्थिति में यदि विद्यालयों में शिक्षक अनुपस्थित रहने लगें, कक्षाएँ खाली रहने लगें या पढ़ाई रुक-रुक कर चलने लगे, तो इसका प्रभाव सीधे इन परिवारों के बच्चों की सीखने की गति, शैक्षिक स्तर, आत्मविश्वास और उनकी प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता पर पड़ता है। शिक्षा में रुकावट गरीब परिवार के बच्चे के लिए केवल कुछ दिनों का नुकसान नहीं, बल्कि संपूर्ण जीवन में अवसरों की कमी का स्थायी घाव साबित होती है।

जब शिक्षक लगातार चुनावी प्रशिक्षणों में भाग लेते हैं, मतदान केंद्रों पर ड्यूटी देते हैं, मतगणना में शामिल होते हैं और चुनावी प्रक्रियाओं से जुड़े विभिन्न कार्यों में कई-कई सप्ताह व्यतीत करते हैं, तो विद्यालयों में पठन-पाठन ठप हो जाता है। यह एक ऐसा अंतराल है जिसे बाद में शिक्षक चाहकर भी पूरा नहीं कर पाते, क्योंकि ग्रामीण बच्चों के लिए सीखने का अवसर सीमित और संवेदनशील होता है। इन बच्चों को पहले से ही घर पर पढ़ाई का अनुकूल वातावरण नहीं मिलता—बिजली की अनियमितता, पढ़ने की सामग्री की कमी, माता–पिता के शिक्षित न होने से मार्गदर्शन न मिल पाना, घरेलू कामों का दबाव और खेत–खलिहान की आर्थिक निर्भरता—ये सभी स्थितियाँ पहले से ही सीखने में बाधाएँ उत्पन्न करती हैं। ऐसे में विद्यालयों का शिक्षक-विहीन रह जाना उस बच्चे के लिए शिक्षा का अधूरापन पैदा करता है और उसके भविष्य को अनिश्चितताओं की ओर धकेल देता है।

चुनावी कार्यों में शिक्षक नियुक्त करना वर्षों पुरानी सरकारी प्रथा है, लेकिन समाज में हुए व्यापक परिवर्तन, शिक्षा की बढ़ती प्रतिस्पर्धा और शैक्षिक मानकों की जटिलताओं को देखते हुए इस प्रथा को अब विवेकपूर्ण ढंग से पुनर्विचार की आवश्यकता है। शिक्षा अब केवल कक्षा में उपस्थिति का माध्यम नहीं रही, बल्कि यह बच्चों के बौद्धिक, सामाजिक और मानसिक विकास की प्रक्रिया है, जिसके लिए निरंतरता अत्यंत आवश्यक है। शिक्षा एक ऐसे पौधे की तरह है, जिसे समय पर पानी न मिले तो उसकी जड़ें कमजोर हो जाती हैं। शिक्षकों की चुनावी व्यस्तता इस पौधे की जड़ों को बार-बार हिलाने का काम करती है, जिससे गरीब परिवारों के बच्चों की सीखने की क्षमता, एकाग्रता और शिक्षा की गुणवत्ता लगातार गिरती चली जाती है।

समस्या केवल अनियमित कक्षाओं की नहीं है; इसका गहरा सामाजिक प्रभाव भी है। शिक्षित अभिभावकों के बच्चे किसी न किसी माध्यम से अपना नुकसान पूरा कर लेते हैं। वे घर पर पढ़ सकते हैं, कोचिंग ले सकते हैं या डिजिटल माध्यमों से सीख सकते हैं। लेकिन गरीब, किसान और मज़दूर परिवारों के बच्चों के पास यह विकल्प नहीं होता। इस प्रकार चुनावी कार्यों के कारण शिक्षकों के विद्यालयों से दूर रहने का वास्तविक नुकसान केवल एक वर्ग को उठाना पड़ता है—वह वर्ग जो पहले से सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़ा है। इससे शिक्षा की असमानता और बढ़ती है, और राष्ट्र की प्रगति का दावा कमजोर पड़ता है। शिक्षा का उद्देश्य समाज की खाई को पाटना है, लेकिन विडंबना यह है कि चुनावी जिम्मेदारियों के कारण वही शिक्षा अब खाई को और चौड़ा करने लगी है।

एक और गंभीर पहलू यह है कि जब शिक्षक चुनावी कार्यों में अधिक समय व्यतीत करते हैं, तो वे मानसिक रूप से भी थक जाते हैं। चुनावी प्रक्रिया तनावपूर्ण, समय-खपाऊ और जटिल होती है, जिसमें जिम्मेदारी का भारी दबाव होता है। लंबे समय तक ऐसी प्रशासनिक भूमिकाएँ निभाने के बाद शिक्षक जब वापस विद्यालय आते हैं, तो उनकी शैक्षणिक ऊर्जा प्रभावित होती है। वे निरंतर अध्ययन, कक्षा-प्रबंधन और बच्चों के साथ रचनात्मक संवाद की लय से बाहर हो जाते हैं। इससे शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट आती है, और बच्चों की सीखने की गति और धीमी हो जाती है। विशेष रूप से वे बच्चे जो पहली पीढ़ी के शिक्षार्थी हैं, जिनके परिवार में पहले कोई शिक्षित नहीं रहा, वे इस अव्यवस्था के कारण और अधिक पिछड़ जाते हैं।

कई बार चुनावी कार्यों के दौरान शिक्षक विद्यालयों के शैक्षणिक कैलेंडर से महीनों दूर रहते हैं। सरकारी परीक्षाएँ, मूल्यांकन कार्य, सत्र परिवर्तन और अन्य शैक्षिक गतिविधियाँ बाधित होती हैं। कई राज्य ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं जहाँ बोर्ड परीक्षा की तैयारी कर रहे बच्चों के शिक्षक सप्ताहों तक वोटर-सूची सत्यापन या बूथ प्रबंधन में लगे रहते हैं। ऐसे में बच्चों के लिए यह उम्मीद करना कि वे प्रतियोगिता में आगे बढ़ पाएँगे, एक दुखद आशावाद बन जाता है। जो बच्चे घर लौटकर पढ़ने की कोशिश करते हैं, उन्हें प्रश्नों में अटक जाना, अवधारणाओं को न समझ पाना और पाठ्यपुस्तक की जटिलताओं से जूझना आम अनुभव बन जाता है। शिक्षक की अनुपस्थिति में शिक्षा एक बोझ की तरह महसूस होने लगती है, जबकि शिक्षा का उद्देश्य बोझ नहीं बल्कि प्रेरणा होना चाहिए।

कई शिक्षा विशेषज्ञों ने इस मुद्दे पर चिंता व्यक्त की है कि जिस समाज में शिक्षकों को प्रशासनिक कार्यों का बोझ उठाना पड़ता है, वहाँ शिक्षा कभी अपनी श्रेष्ठ गुणवत्ता तक नहीं पहुँच सकती। चुनावी प्रक्रिया अत्यंत महत्वपूर्ण है, लेकिन यह प्रश्न भी विचारणीय है कि क्या लोकतंत्र की सबसे आवश्यक प्रक्रिया को संचालित करने के लिए शिक्षकों की शैक्षणिक जिम्मेदारियों को बार-बार बाधित करना उचित है? क्या प्रशासनिक और चुनावी ढाँचे इतने कमजोर हैं कि वे शिक्षा व्यवस्था को बाधित किए बिना अपने कार्य नहीं कर सकते? और यदि हाँ, तो इस ढाँचे को मजबूत करना आज की शिक्षा और राष्ट्र-निर्माण के लिए अनिवार्य होना चाहिए।

भारतीय शिक्षा प्रणाली पहले से अनेक चुनौतियों का सामना कर रही है—शिक्षक-अभाव, अपर्याप्त संसाधन, असमान अवसर, बाल विवाह, बाल मजदूरी, परिवहन की कमी, ड्रॉपआउट दर और ग्रामीण पिछड़ापन। इन सबके ऊपर चुनावी जिम्मेदारियों का बोझ ऐसा है, जो पहले से जूझ रही शिक्षा प्रणाली को और अधिक कमजोर कर देता है। यह दबाव सबसे पहले और सबसे ज्यादा गरीब परिवारों के बच्चों पर पड़ता है, जिनके पास शिक्षा के अन्य विकल्प नहीं होते। शिक्षकों को मतदान अधिकारी, बूथ लेवल अधिकारी, प्रशिक्षण प्राप्तकर्ता, मतगणना सदस्य, सत्यापन कर्मचारी आदि विभिन्न भूमिकाओं में लगाया जाता है। इसमें कई सप्ताह, कभी-कभी महीनों का समय लग जाता है। शिक्षा-अवधि में यह लंबा हस्तक्षेप बच्चों की बौद्धिक निरंतरता को तोड़ देता है।

चुनावी कर्तव्यों में लगातार लगी शिक्षा प्रणाली का परिणाम यह भी है कि ग्रामीण विद्यालय धीरे–धीरे समुदाय का विश्वास खोने लगते हैं। अभिभावक सोचने लगते हैं कि बच्चे विद्यालय जाएँ भी तो क्या पढ़ेंगे, जब शिक्षक ही मौजूद नहीं हैं? कुछ परिवार इस कारण बच्चों को काम पर लगाने लगते हैं—कभी खेत पर, कभी मजदूरी में, कभी घर के दायित्वों में। यह प्रवृत्ति बच्चों में शिक्षा से दूरी पैदा करती है और बचपन की मासूम महत्वाकांक्षाएँ अधूरी रह जाती हैं।

यदि प्रशासन चुनावी कार्यों के लिए अतिरिक्त मानव संसाधन का प्रशिक्षण शुरू करे, जैसे स्थानीय युवा, स्वयंसेवी संगठन, प्रशिक्षित अस्थायी कर्मचारी, गैर-शैक्षणिक कर्मियों की भूमिका विकसित करना, तो शिक्षकों की चुनावी निर्भरता कम हो सकती है। कुछ देशों में स्कूल-शिक्षकों को चुनावी कार्यों से पूरी तरह मुक्त रखा जाता है, ताकि शिक्षा प्रभावित न हो। यह व्यवस्था भारत में भी लागू की जा सकती है। लोकतंत्र की मजबूती केवल मतदान से नहीं होती, बल्कि बच्चों की शिक्षा से भी होती है। लोकतंत्र तभी स्वस्थ हो सकता है जब उसके नागरिक शिक्षित हों, सचेत हों और अवसरों में समान हों। परंतु यदि चुनावी व्यस्तता के कारण शिक्षक अनुपस्थित रहेंगे और शिक्षा कमजोर होगी, तो आने वाली पीढ़ी का नागरिक न तो अपने अधिकारों को गहराई से समझ पाएगा, न ही राष्ट्र के विकास में सशक्त रूप से भाग ले पाएगा।

किसान और मजदूर परिवारों के बच्चों के लिए शिक्षा गरीबी से मुक्ति का सबसे बड़ा साधन है। यदि यह साधन ही कमजोर हो जाए तो गरीब वर्ग के बच्चे वही बने रहते हैं जहाँ उनके माता-पिता थे—एक ही संघर्ष, एक ही सीमाएँ, एक ही अभाव। यह शिक्षा के मूल उद्देश्य—समान अवसर—का अपमान है। यह स्थिति भविष्य के भारत को भी असमान, असंतुलित और संघर्षपूर्ण बनाती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा को केवल शैक्षणिक विषय न समझकर राष्ट्र के संवैधानिक दायित्व के रूप में देखा जाए और प्रशासन यह सुनिश्चित करे कि बच्चे, विशेषकर गरीब परिवारों के बच्चे, शिक्षक-विहीन कक्षाओं का दंश न झेलें।

चुनावी प्रक्रिया जितनी महत्वपूर्ण है, उतना ही महत्वपूर्ण यह समझना है कि शिक्षा को बाधित करना चुनावों का ‘अनिवार्य मूल्य’ नहीं होना चाहिए। यदि लोकतंत्र को मजबूत बनाना है तो बच्चों को शिक्षा का निरंतर, गुणवत्तापूर्ण और समर्पित वातावरण देना ही होगा। शिक्षक कक्षा में होंगे तभी भविष्य सुरक्षित होगा; शिक्षक यदि चुनावी बूथों पर रहेंगे, तो बूथ तो चल जाएगा, लेकिन बच्चों का जीवन-पथ रुक जाएगा। यह रुकावट केवल आज की नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों की रुकावट है।

आज ग्रामीण भारत के खेतों में काम करते हुए अनगिनत किसान और मजदूर अपने बच्चों को पढ़ाकर एक बेहतर भविष्य का सपना संजोते हैं। परंतु जब विद्यालय में शिक्षक नहीं मिलता तो वह सपना अधूरा रह जाता है। उनके बच्चों की आँखों में जो आशा, जो आकांक्षा और जो उजाले की कल्पना होती है, वह चुनावी जिम्मेदारियों के दबाव में धुँधली पड़ने लगती है। शिक्षक की कक्षा की कुर्सी का खाली रहना किसी बच्चे के भविष्य का खालीपन है, जो समाज के लिए सबसे दुखद सच्चाई है। इसलिए अब समय आ गया है कि शिक्षा और चुनाव दोनों के महत्व को संतुलित ढंग से समझा जाए, और ऐसी व्यवस्थाएँ विकसित की जाएँ जिनसे शिक्षक अपने प्राथमिक कर्तव्य—शिक्षण—से कभी बाधित न हों।

यदि हम वास्तव में एक ऐसे भारत का निर्माण करना चाहते हैं जहाँ हर बच्चा, चाहे वह किसान का हो, मजदूर का हो या गरीब परिवार का, समान अवसरों के साथ आगे बढ़ सके, तो शिक्षा को अविच्छिन्न, संरक्षित और प्राथमिक महत्व देना होगा। लोकतंत्र तभी जीवित रहेगा, जब स्कूल जीवित रहेंगे; और स्कूल तभी जीवित रहेंगे, जब शिक्षक कक्षा में होंगे, न कि चुनावी मंचों पर। यही वह सामाजिक और नैतिक दृष्टि है, जिससे न केवल विद्यार्थियों का भविष्य सुरक्षित होगा, बल्कि राष्ट्र भी मजबूती की ओर अग्रसर होगा।

डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा

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